Saturday, January 16, 2016

बुद्ध के धम्म का केन्द्र बिन्दु आदमी है

बुद्ध के धम्म का केन्द्र बिन्दु आदमी है. इस पृथ्वी पर रहते हुये आदमी का आदमी के प्रति क्या कर्तव्य होना चाहिये? यह उनकी पहली स्थापना है.
दूसरी स्थापना है कि आदमी दुखी है, कष्ट में है, दरिद्रता का जीवन जी रहा है. संसार दुःख से भरा पड़ा है. धम्म का उद्देश्य इस दुःख का नाश करना ही है.
दुःख के अस्तित्व की स्वीकृति और दुःख के नाश करने के उपाय धर्म की आधारशिला हैं.

धम्म कैसे दु:ख का नाश करता है?

यदि व्यक्ति
- (1) पवित्रता के पथ पर चले
- (2) धम्म के पथ पर चले
- (3) शील-मार्ग पर चले
तो इस दुःख का निरोध हो सकता है.
कोई भी आदमी जो अच्छा बनना चाहता है, उसके लिये यह आवश्यक है कि अच्छाई का कोई मापदण्ड स्वीकार करे.

बुद्ध की पवित्रता के पथ के अनुसार अच्छे जीवन के 5 मापदण्ड हैं.
-(1) किसी प्राणी की हिंसा न करना.
-(2) चोरी न करना.
-(3) व्यभिचार न करना.
-(4) असत्य न बोलना.
-(5) नशीली जीजें ग्रहण न करना.

हर व्यक्ति के लिये ये परम आवश्यक है कि वह इन पाँच शीलों को स्वीकार करे, क्योंकि हर आदमी के लिये जीवन का कोई मापदण्ड होना चाहिये, जिससे वह अपनी अच्छाई-बुराई को माप सके. धम्म के अनुसार ये पाँच शील जीवन की अच्छाई-बुराई मापने के मापदण्ड हैं.

दुनियां में हर जगह पतित (बुरे, गिरे हुये) लोग भी होते हैं. पतित दो तरह के होते हैं-
 एक, वे जिनके जीवन का कोई मापदण्ड होता है.
दूसरे, वे जिनके जीवन का कोई मापदण्ड ही नहीं होता.

जिसके जीवन का कोई मापदण्ड नहीं होता, वह पतित होने पर भी यह नहीं जानता कि वह पतित है. इसलिये वह हमेशा पतित ही रहता है.

दूसरी ओर जिसके जीवन का कोई मापदण्ड होता है, वह हमेशा इस बात की कोशिश करता रहता है कि पतित अवस्था से ऊपर उठे. क्यों? क्योंकि वह जानता है कि वह पतित है, गिर गया है.
अत: बुद्ध के ये पाँच शील व्यक्ति के लिये कल्याणकारी हैं और व्यक्ति से ज्यादा समाज के लिये कल्याणकारी हैं.

 अाष्टांगिक मार्ग 

 आष्टांगिक मार्ग सर्वश्रेष्ठ इसलिए है कि यह हर दृष्टि से जीवन को शांतिपूर्ण और आनंदमय बनाता है. बुद्ध ने इस दुःख निरोध प्रतिपद आष्टांगिक मार्ग को 'मध्यमा प्रतिपद' या मध्यम मार्ग की संज्ञा दी है. अर्थात जीवन में संतुलन ही मध्यम मार्ग पर चलना है.

 अष्टांग मार्ग या अाष्टांगिक मार्ग तथागत बुद्ध द्वारा प्रतिपादित आठ उपदेश हैं, जो मानव-विकास एवं सामाजिक विकास में सहायक हैं. तथागत बुद्ध के अनुसा राग-द्वेष से मुक्त होकर आष्टांगिक मार्ग पर चलते हुये श्रेष्ठ जीवन जीना ही निर्वाण कहलाता है.
ये आठ मार्ग निम्नवत हैं:

 सम्यक दृष्टि : सम्मा दिट्ठी (पाली) अाष्टांगिक मार्ग का प्रथम और प्रधान अंग है. अविद्या का विनाश सम्यक दृष्टि का अंतिम उद्देश्य है. सम्यक दृष्टि मिथ्या दृष्टि की विरोधनी है. अविद्या का अर्थ है, आर्य सत्यों (Noble Truths) को न समझ पाना.

सम्यक दृष्टि का अर्थ है, कर्म-कांड की प्रभाव उत्पादकता में विश्वास न रखना और शास्त्रों की पवित्रता की मिथ्या-धारणा से मुक्त होना.

सम्यक दृष्टि का अर्थ है, अंधविश्वास तथा अलौकिकता का त्याग करना.
सम्यक दृष्टि का अर्थ है, ऐसी सभी मिथ्या धारणाओं का त्याग करना जो कल्पनामात्र हैं और जो यथार्थ पर आधारित नहीं हैं.

सम्यक दृष्टि का न होना, सभी बुराइयों की जड़ है. सम्यक दृष्टि अन्धविश्वास तथा भ्रम से रहित यथार्थ को समझने की दृष्टि है. जीवन के दुःख और सुख का सही अवलोकन, तथागत बुद्ध द्वारा प्रतिपादित महान सत्यों को समझाने का कार्य सम्यक दृष्टि ही करती है.

 सम्यक संकल्प : हर आदमी के उद्देश्य, आकांक्षायें तथा महत्वाकांक्षायें होती हैं. सम्यक संकल्प यह शिक्षा देता है कि हमारे उद्देश्य, आकांक्षायें तथा महत्वाकांक्षायें उच्च स्तर की हों, जनकल्याणकारी हों. जीवन में संकल्पों का बहुत महत्व है. दुःख से छुटकारा पाने के लिये दृढ़ निश्चय करना सम्यक संकल्प है. दुःख के निरोध के मार्ग पर चलने के लिये उच्च तथा बुद्धियुक्त संकल्प ही सम्यक संकल्प है.

 सम्यक वाणी : सम्यक वाणी हमें सत्य बोलने, असत्य न बोलने, पर-निंदा से दूर रहने, गाली-गलौच वाली भाषा न बोलने, सभी से विनम्र वाणी बोलने की शिक्षा देती है. जीवन में वाणी की सत्यता और विनम्रता आवश्यक है. यदि वाणी में सत्यता और विनम्रता नहीं तो दुःख निर्मित होने में ज्यादा समय नहीं लगता. सम्यक वाणी का व्यवहार किसी भय या पक्षपात के कारण नहीं होना चाहिये.

 सम्यक कर्मान्त (सम्मा कम्मन्तो) : दुराचार रहित शान्तिपूर्ण, निष्ठापूर्ण कर्म ही सम्यक कर्मान्त कहा जाता है. सम्यक कर्मान्त का अर्थ है दूसरों की भावनाओं और अधिकारों का आदर करना.

 सम्यक आजीव या सम्यक आजीविका :  किसी भी प्राणी को आघात या हानि पहुँचाये बिना न्यायपूर्ण जीविकोपार्जन सम्यक आजीव कहलाता है.

 सम्यक व्यायाम : आत्म-प्रशिक्षण, मंगल की उत्पत्ति और अमंगल के निरोध हेतु किया गया प्रयत्न या अभ्यास सम्यक व्यायाम कहलाता है.
सम्यक व्यायाम के चार उद्देश्य हैं :
– अाष्टांगिक मार्ग विरोधी चित्त-प्रवृत्तियों को रोकना.
– येसी चित्त-प्रवृत्तियों को दबा देना जो पहले से उत्पन्न हो गयी हों.
– येसी चित्त-प्रवृत्तियों को उत्पन्न करना जो अाष्टांगिक मार्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति में सहायक हों.
– येसी चित्त-प्रवृत्तियों का विकास करना जो अाष्टांगिक मार्ग पर चलाने में सहायक हों.

 सम्यक स्मृति : सम्यक स्मृति जागरूकता और विचारशीलता का आह्वान करती है. बुरी भावनाओं के विरूद्ध चित्त द्वारा नजर रखना सम्यक स्मृति  का काम है. सम्यक स्मृति से चित्त में एकाग्रता का भाव आता है, जिससे शारीरिक तथा मानसिक अनावश्यक भोग-विलास की वस्तुओं को स्वयं से दूर रखने में मदद मिलती है. एकाग्रता से विचार और भावनाएँ स्थिर होकर शुद्ध बनी रहती हैं.

 सम्यक समाधि : सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक कर्मान्त, सम्यक आजीव, सम्यक आजीव, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि प्राप्त करने की चेष्टा करने वाले व्यक्ति के मार्ग में 5 बंधन या बाधायें आती हैं. ये 5 बाधायें हैं – लोभ, द्वेष, आलस्य, विचिकित्सा और अनिश्चय. इसलिये इन बाधायों पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है. इन पर विजय प्राप्त करने का मार्ग समाधि है. लेकिन, यहाँ ये समझ लो कि समाधि, सम्यक समाधि से अलग है, भिन्न है. समाधि का मतलब है चित्त की एकाग्रता. यह एक तरह का ध्यान है जिसमें ऊपर लिखी पाँचों बाधायें अस्थाई तौर पर स्थगित रहती हैं. खाली समाधि एक नकारात्मक स्थिति है. समाधि से मन में स्थाई परिवर्तन नहीं आता. आवश्यकता है चित्त में स्थायी परिवर्तन लाने की. स्थायी परिवर्तन सम्यक समाधि के द्वारा ही लाया जा सकता है. सम्यक समाधि एक भावात्मक वस्तु है. यह मन को कुशल कर्मों का एकाग्रता के साथ चिन्तन करने का अभ्यास डालती है और कुशल ही कुशल सोचने की आदत डाल देती है. सम्यक समाधि मन को अपेक्षित शक्ति देती है, जिससे आदमी कल्याणरत रह सके.

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